महिला प्रधानों से गांवों में कितना हुआ बदलाव,जाने गांवों का हाल
महिला प्रधानों से गांवों में कितना हुआ बदलाव,जाने गांवों का हाल


16 May 2021 |  341



धनंजय सिंह स्वराज सवेरा एडिटर इन चीफ यूपी 



 लखनऊ।उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव खत्म हुए अभी ज्यादा दिन नही हुए हैं।नए प्रधानों ने अभी पूरी तरह से अपना कार्यभार भी नही संभाल पाए थे कि कोरोना ने चादर लेकर गांवों में अपना पांव पसारने चालू कर दिया।अब ऐसी परिस्थितियों में प्रधानों के सामने चुनौतियां रावण की तरह खड़ी हो गई हैं।गांवों के विकास की रफ्तार शहरी विकास से बहुत धीरे है,जिससे किसी भी तरह के चमत्कार की उम्मीद करना पेड़ में सर मारना है।पंचायत की बागडोर 19,659 महिला प्रधानों के हाथों में आ गयी है।राजस्थान के गादोला गांव की महिला प्रधान ने कोरोना महामारी से बचाव का प्रोटोकॉल अपना कर 86 संक्रमितों अपने गांव को कोरोना संक्रमण से मुक्त कर एक मिसाल कायम की है। इसके विपरीत अप्रिय घटनाएं भी हमें विचलित कर रही हैं। कुछ वर्षों पहले अमेठी के बंदुहिया गांव की दलित प्रधान पति को जिंदा जलाया गया था। कुल महिला प्रधानों की संख्या 2015 की तुलना में कम हुई है। जैसे, अनुसूचित जाति की महिलाओं की संख्या 4,341 से घटाकर 4,288 कर दी गई। अनुसूचित जनजाति के पद 132 से घटाकर 131 कर दिए गए। ओबीसी के पद 9,927 से घटाकर 5,501 कर दिए गए। जबकि सामान्य वर्ग की महिलाओं के लिए 9,739 पद आरक्षित किया गया। यानी महिला प्रधानों के 333 पद कम किया गया। इस बार जिला पंचायत अध्यक्ष पदों पर बारह सामान्य की, सात ओबीसी की और छह अनुसूचित जाति की यानी कुल 25 महिला अध्यक्ष चुनी गई हैं। जबकि जरूरत है महिलाओं के नेतृत्व को बढ़ाने की और पुरुषों के वर्चस्व को कम करने की। यदि हम महिला नेतृत्व की विफलता, पुरुषों पर उनकी अति निर्भरता और पुरुषवादी दखलनदाजी से आंखों को बंद नहीं कर सकते।लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि महिलाओं को अवसर ही न दिया जाएं। यह कहा जाता है कि ग्रामीण इलाकों का परिदृश्य जब पुरुष प्रधानों से नहीं बदला जा सका, तब महिला प्रधानों से क्या बदलाव आ जाएगा। महिलाएं जैसे अपने घर को अच्छी तरह से चलाती हैं,ठीक उसी तरह ही गांवों को भी चला सकती हैं और अच्छा विकास भी कर सकती है।महिलाओं की कमजोरी या विफलता के लिए पुरुष प्रधान मानसिकता ही जिम्मेदार है। कुछ नई चुनी गई महिला प्रधानों से जब पूछा गया कि किस काम आप वरीयता देंगी, तो उनमें से कुछ के जवाब थे कि उनके पति जैसा कहेंगे, वे वैसा ही करेंगी। जबकि कुछ ने कहा कि वे स्कूलों की हालत सुधारेंगी, गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना कराएंगी, बालिकाओं की पढ़ाई सुनिश्चित करेंगी, ताकि आने वाली महिला प्रधान पढ़ी लिखी हों और जुआ व शराब जैसी बुराइयों के खिलाफ जागरूकता बढ़ाएं। जब महिला प्रधान के पास निर्णय लेने का साहस होगा तो वे गांवों की दिशा और दशा में जरूर बदलाव लायेंगी।होना तो ये चाहिए कि अगले बीस सालों तक सिर्फ महिलाओं को ही ग्राम प्रधान चुना जाए। प्रधानों के कार्य की अलग कहानी है। चुनाव में ग्राम प्रधान अंधाधुंध तरह से पैसा खर्च करते हैं, और फिर अंधाधुंध पैसा इकठ्ठा करते हैं और यही वजह है कि आज भी गांव मूलभूत सुविधाओं की राह ताक रहा हैं।प्रधानों की सत्यकथाएं और लीलाऐं हमें थोड़े में ज्यादा समझा देती हैं।शाहजहांपुर के कुदइया गांव में प्रधान की जिम्मेदारी संभाल चुकी एक महिला बताती है कि गांव में कोरोना आया है, जबकि लोगों ने सरकार की गाइड लाइन का पालन नहीं किया। दिल्ली और हरियाणा से गांव लौटकर वोट देते समय मुहर को सैनिटाइज नहीं किया गया। बार-बार उसे नए-नए हाथों ने छुआ। ड्यूटी पर तैनात शिक्षकों तक ने ध्यान नहीं दिया। वे भी संक्रमित हुए और कई शिक्षकों को मौत निगल गई। महिला प्रधानों की कहानी स्त्री और पुरुष नेतृत्व का अंतर बताने के लिए काफी हैं।बदायूं जिले के दूनपुर गांव में खादी ग्रामोद्योग के एक कर्मचारी रहते थे। उनका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली था।प्रधानी की महिला सीट होने पर उन्होंने अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाया था और वह जीती भी लेकिन उन्होंने पांच साल के कार्यकाल में न तो कभी प्रधानों की मीटिंग में गई, न ही पति के बजाय खुद को कभी प्रधान समझा। ऐसे ही, शाहजहांपुर जिले के जोराभूड़ गांव के प्रधान के बारे पता चला कि महिला सीट होने के बाद प्रधान पुरुष हैं, पोस्टर पर उनकी फोटो पत्नी की तस्वीर से आठ गुना बड़ी थी। चुनाव उनकी पत्नी ने जीता था, पर वो पर्दे के पीछे रहती है। जब प्रधान बना उनका पति अपनी बेटियों को स्कूल नहीं भेजता, तो गांव की बेटियों को पढ़ाने की बात कैसे सोचेंगे या करेंगे। ऐसी ही हसनपुर तहसील के गांव डूंगर-मिर्जापुर में प्रधान पद आरक्षित हुआ, तो एक दलित युवक गांव का प्रधान बन गया, जबकि एक दबंग ओबीसी उप प्रधान बना। पता यह चला कि प्रधान का बस्ता, मुहर आदि सब उप प्रधान के घर पर ही रखा रहता हैं। उन्हें हस्ताक्षर कराने के लिए जब भी प्रधान की जरूरत होती है, प्रधान को तलब कर लिया जाता है। कोई सरकारी कर्मचारी गांव में आता है, तो उसकी आवभगत उप प्रधान के घर पर ही होती है, क्योंकि वे दलित के घर का खा नहीं सकते। हां, खर्च का बिल जरूर दलित प्रधान के घर भेज दिया जाता था। ग्रामीण भारत में जातिभेद, लिंगभेद, दबंगों की आक्रामकता और राजनीति की नकारात्मकता ने चुनावी लोकतंत्र को बौना बना दिया है।


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